पर्याप्त व्यायाम का अभाव: पुराने समय में पर्याप्त गोचर भूमि हुआ करती थी। इसलिए, गाय, भैंस, बकरी आदि मवेशी सुबह से शाम तक चारागाहों में घास खाते हुए घूमते रहते थे। यही कारण था कि जानवर पूरे दिन चलते थे। पर्याप्त व्यायाम मिलता था। खाना अच्छे से पचता था। पशुओं के लिये कम से कम 4 घंटे तक धूप में घूमते रह कर, चर कर आहार लेना उत्कृष्ट होता है। चरने की प्रक्रिया से लार और अन्य पाचक रस उनके आहार में मिश्रित होते हैं। इसलिए खाना आसानी से पच जाता हैा।
चरागाहों कि जगह पर घरों और कारखानों के बन जाने से गोचर नष्ट हुए हैं, जिसके कारण आधुनिक समय में, ज्यादातर लोग जानवरों को खूंटे से बांध कर रखते हैं। इस कारण-वश पशुओं को बिल्कुल भी व्यायाम नहीं मिलता है। भोजन पचता नहीं है और अपच, गैस जैसी कई बीमारियाँ होती हैं। पशु बीमार हो जाते हैं।
विषाक्त खाद्य पदार्थ: आज के आधुनिक युग में, किसान ज्वार, बाजरा, गेहूं, मक्का, जौ और राजका जैसी सभी चारे की फसलों में प्रचुर मात्रा में जहरीले कीटनाशकों का छिड़काव करते हैं, और यूरिया जैसे रासायनिक उर्वरकों का काफी मात्रा में उपयोग करते हैं। ऐसा जहरीला चारा खाने से पशु रोगों से पीड़ित होते हैं। उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। वे जल्दी मर जाते हैं।
वास्तविक उदाहरण: शहर के लोग अपने बंगले के परिसर (लॉन इत्यादि) में उगी घास पर जहरीले कीटनाशकों और यूरिया जैसे उर्वरकों का उपयोग करते हैं। ऐसी अतिरिक्त घास को काटकर सड़क पर ही फेक दिया जाता है। सड़को पर ड़ोलने वाली गायों द्वारा ऐसी घास खाये जाने पर अक्सर तुरंत ही उनकी मृत्यु हो जाती है।ज़हरीली घास खाने से पशुओं के दूध में जहर और खून आ जाता है। विचार कीजिये यह पशुओं तथा मनुष्यों दोनों को कितना नुकसान पहुँचाता होगा। कैंसर जैसे रोग के मुख्य कारणों में से रासायनिक उर्वरकों द्वारा पैदा किया गया अन्न का खाया जाना बताया गया है।
दूषित पानी: औद्योगिक कारखानों से निकलने वाला दूषित व रासायनिक पानी नदी, कुएं या तालाब में जाता है। ऐसे दूषित पानी को पीने से पशु गंभीर रूप से बीमार हो जाते हैं। जहरीले कीटनाशकों और यूरिया डाली हुई जमीन पर जब बारिश का या खुला पानी छोड़ा जाता है तो वे नदी या झील में जाते हैं और इसलिए, ऐसा पानी पीने पर पशु बीमार हो जाते हैं।
प्रदूषित वायु: औद्योगिक कारखाने और लाखों वाहन जैसे मोटर, ट्रक, मोटरसाइकिल दिन रात कार्बन-डाइऑक्साइड जैसी जहरीली गैस हवा में छोड़कर उसे जहरीली बनाती है। ऐसी हवा पशुओं के श्वास्न तंत्र में कई प्रकार के रोग उत्पन्न करती हैं। साथ ही पशु को छोटी एवं अंधकार भरे घर या शेड मे रखने से, जहां सूर्य प्रकाश और हवा का आवागमन नहीं है, उन्हें सांस लेने में तकलीफ होती है और इसके कारण वें कई बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं।
पशुओं को बांधने की जगह पर कीचड़ या गंदगी होने पर जहाँ नमीयुक्त रोग-कारक और प्रदूषित वायु उत्पन्न होती हो, उनमें कई बीमारियाँ पैदा होती हैं। मक्खी या मच्छरों का प्रचलन बढ़ता है। कीड़े, गोचिड, जूँ जैसे जंतुओं का संक्रमण बढ़ जाता हैं। इससे जानवर कई बीमारियों से पीड़ित हो जाते हैं।
बीमार पशुओं को साथ मे बांधने से स्वस्थ पशुओं मे भी संक्रमण फैलता है जिससे वह भी रोगी हो जाते हैं।
बीमार और रोगग्रस्त सांडों से गर्भवती हुई गायों के शावक भी जन्मजात रोगी होते है।
पानी में बहुत गीला, सड़ा-गला हुआ, शैवाल या फंगस लगे हुए घास को खाने के बाद भी पशु गंभीर बीमारियों से पीड़ित होते हैं।
जिन तालाबों, नदियों या बंद जलाशयों में बीमार पशु नहाते हो, मल मूत्र त्यागते हो उस पानी में रोगी पशुओं के रोगाणु व्यापक रूप से फैले हुए होते हैं। दूषित पानी पीने या शरीर को लगने से पशु के कई प्रकार की गंभीर बीमारियों से पीड़ित होने की संभावना रहती हैं।
पशुओं की खाने की गमाण या पीने के पानी की टंकी की सफाई नियमित रूप नहीं की जाए तो उनके संक्रमित होने का अंदेशा बढ़़ जाता है।
पशुओं के रहने के स्थान पर गंदगी, कीचड़ और नम हवा की बहुलता के कारण मच्छरों और मक्खियों का उपद्रव बढ़ जाता है। ये मच्छर पूरे दिन पशुओं का खून पीते हैं, जिससे पशुओं को मलेरिया एवं अन्य गंभीर बीमारियाँ हो जाती हैं।
एलोपैथी दवाएं: 21वीं शताब्दी में पशु चिकित्सक बड़े पैमाने पर बीमार पशुओं को एलोपैथिक इंजेक्शन या गोलियां द्वारा चिकित्सा करते हैं। इनमें से कुछ दवाएँ रक्त को विषाक्त करती हैं, विषाक्त पदार्थ धीरे-धीरे शरीर में जमा होते हैं। जिससे जानवर बीमार हो जाते हैं। एलोपैथी के दुष्प्रभाव भी हैं जिसके कारण जानवर ओर भी बीमारियों के शिकार होते हैं।
रोग का पता लगाने की क्षमता का अभाव: अतीत में, गौ-पालन (पशु- पालन) एक पूर्णकालिक कार्य हुआ करता था। यह आज के समय की तरह, मात्र व्यापारिक कार्य नही होता था। जड़ी- बूटियों की पहचान करना, पशुओं की बीमारियों का इलाज करना और प्राकृतिक हर्बल दवाइयाँ देकर पशु रोगों का इलाज करना गौ-पालको को आता था। अब, नए युग में, लोगों ने होटल, सिनेमा, पिकनिक और क्लबों हत्थे चढ़ा लिये हैं यानी संस्कृति भोगवादी हुई है। पशुओं का उपयोग केवल दूध देने वाली मशीन की तरह किया जाता है। पशु-पालक स्वंय रोगों की पहचान नहीं कर पाते। जब जानवर बहुत बीमार हो जाता है, तब जाकर डॉक्टर को बुलाकर उन्हें इंजेक्शन या भारी दवा की खुराक दे दी जाती है। एलोपैथिक दवाएंके दुष्परिणाम स्वरूप एक बीमारी को दबाने पर और कई अन्य बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं।
आत्मीयता का अभाव: पशु भी प्यार, ममता, स्नेह स्पर्श की भाषा समझते हैं। वे भी प्यार करना चाहते हैं। प्यार, स्नेह और एहसास दुनिया की सबसे शक्तिशाली दवा है। कुछ पशु-पालक और गौ- प्रेमी, अपने जानवरों को परिवार के सदस्य के रूप में प्यार करते हैं और उन्हें पालते हैं। जानवर उन्हें देखते ही उनके तरफ दौड़ आते हैं। प्रेम लाखों दुखों की दवा है। यदि आप पशु से प्यार करते हैं, तो आप उसका दुख दर्द और पीड़ा को समझ कर प्रेम से चिकित्सा करेंगे। जानवर भी प्यार को तरसते हैं। उनके हित की भावना और प्यार से सहलाने पर वह आपके नियंत्रण में हो जाते हैं। आप गायों से जितना अधिक प्यार करते हैं, तो वे उतना अधिक दूध देती हैं। पशुओं में भी परमात्मा विराजमान हैं। यदि आप उनके रोगों को दूर करने में निमित्त बनोगे तो भगवान प्रसन्न होंगे। आपका शुभ और कल्याण होगा।